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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

बेटियाँ (कुछ दोहे)



घर सूना कर बेटियाँ ,जाती हैं ससुराल| 
दूजे घर की बेटियाँ ,कर देती खुशहाल||


बेटा !बेटी मार मत ,बेटी है अनमोल|
बेटी से बेटे मिलें  ,बेटा आँखें खोल||

घर की रौनक बेटियाँ,दो-दो घर की लाज|
उनको ही आहत करे ,कैसा कुटिल समाज|| 

खाली कमरा रह गया,अब बिटिया के बाद|
चौखट भी है सीलती ,जब-जब आये याद||

बेटों को सब मानते ,करते उन्नत  भाल|
बेटी को अवसर मिलें, छूले गगन विशाल||

बेटी को काँटा समझ ,मत करना तू भूल|
बेटी भी बनकर खिले, उस डाली का फूल||

घटती जाएं  बेटियाँ , बढ़ते जाएं लाल|
बिगड़ेगा जो संतुलन,बदतर होगा हाल||

पीढ़ी बेटों से चले , बेटों से ही वंश|
नहीँ रहेंगी बेटियाँ ,कहाँ रहेगा अंश|| 

कैसे अब आँगन फले, कहाँ रहेगा अंश| 
जीवन अब कैसे चले,किस्मत झेले दंश||

पीढ़ी अब कैसे चले ,कहाँ बढ़ेगी बेल|
यूँ कन्या को मार के,रचे अंत के खेल||      ********************************

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

(ग़ज़ल) ,कमी तो रहेगी

जहाँ तू नहीं फिर कमी तो रहेगी
उदासी   ज़हन  में जमी तो रहेगी

हटेगी नहीं जब ये कुहरे की चादर
वहाँ बस्तियों में नमी तो रहेगी

नहीं जब तलक कोई साहिल मिलेगा
मुहब्बत की कश्ती थमी तो रहेगी

करे तू जो शिरकत जरा इस चमन में
हवा ये सुगन्धित रमी तो रहेगी

मिले ना मिले 'राज' तुझको ये दौलत
फ़कत ख़्वाब में हमदमी तो रहेगी

भले ही न हो आज तेरा नसीबा
कहीं ना कहीं सरग़मी  तो रहेगी

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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

सुषुप्त मन में ?


उफ्फ ये स्वप्न!!
हृदय विदारक
कैसे जन्मा
सुषुप्त मन में ?
रेंगती संवेदनाएं  
कंपकपाएँ
जड़ जमाएं  
भयभीत मन में
अतीत है या
भावी  दर्पण
उथल पुथल है
मन उलझन में
गर वर्तमान  है 
बन के  प्रश्न
 खड़ा हुआ 
नेपथ्य तम में 
क्या स्वप्न जो  
 नयनों में पले
वो भी जले   
आतंकी अगन में  
क्यों  याद नही
रंग सिन्दूरी    
बस रक्त रंग ही
घूमता ज़हन में
जो घुला  है  मेरी  
 रग रग में
क्या वही
 जन्मता
सुषुप्त मन में?
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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

मुकद्दर का घोड़ा रब्बा


122, 122 22 (छोटी बहर की ग़ज़ल)

जमाया हथौड़ा रब्बा 
कहीं का न छोड़ा रब्बा 

बना काँच का था नाज़ुक 
मुकद्दर का घोड़ा रब्बा 

हवा में उड़ाया उसने 
जतन से था जोड़ा रब्बा

तबाही का आलम उसने 
मेरी और मोड़ा रब्बा  

बेरह्मी से दिल को यूँ 
कई बार तोड़ा रब्बा  

रगों से लहू को मेरे
बराबर निचोड़ा रब्बा

चली थी  कहाँ मैं देखो   
कहाँ ला के छोड़ा रब्बा

मुकद्दर पे ताना कैसे
कसे मन निगोड़ा रब्बा 

लगे ए  'राज' तेरा ये 
कहानी का रोड़ा रब्बा 
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सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

सभ्यता संस्कृति(चौपाई )


सभ्यता और संस्कृति जब तक|  
लौ जीवन की जलती तब तक ||

पत्थर में हीरा पह्चानो|
सद् गुण रुप सकल तुम जानो ||

जल बिन कमल चाँद बिन अंबर
गुण बिन वदन मान मत सुंदर ||

आदर्शों से चलती नैया|
मिट जाएँ तो कौन खिवैया ||

सम सुसंस्कृत  देश है मेरा|
उस पे अखंडता का  बसेरा ||

सभ्यता पहचान हो  जिसकी|
सुसंस्कृति ही जान है उसकी|| 
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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

प्रीत दिवस

(कुछ दोहे)

प्रेम प्रणय का आज क्यूँ ,हो पाता इज़हार |

प्रीत दिवस के बाद क्या ,खो जाता है प्यार ?




सच्चे मन से कीजिये ,सच्चे दिल का प्यार |


निश्छल दिल ही दीजिये,जब करना इज़हार||




पश्चिम का तो चढ़ रहा ,प्रेम दिवस उन्माद |


अपने पर्वों के लिए ,पाल रहे अवसाद||




युवक युवतियों के लिए ,दिन है बहुत विशेष |


खुली मुहब्बत का मिले ,हर दिल को संदेश||




पश्चिम के त्यौहार का ,डंका बजता आज |


प्रेम दिवस के सामने ,गुमसुम है ऋतुराज||




लगा डुबकियाँ कुंभ में ,तन का मैल उतार |


कहाँ उतारे सोच ले ,मन का शेष विकार||

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बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

ऋतुराज बसंत


(कुण्डलिया)
पीले पीले वेश में ,आया आज बसंत
परिवर्तन की गोद में ,जा बैठा हेमंत
जा बैठा हेमंत ,खेत में सरसों फूली
महक उठा ऋतुकंत,प्रेयसी झूला झूली
रसिक भ्रमर को भाय, मनोहर वदन सजीले
कह ऋतुराज बसंत ,अमिय रस पीले पीले 
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