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बुधवार, 28 नवंबर 2012

इक ऐसा सच!!!


(मेरा छोटा भाई )
( इक ऐसा सच!! लगता है जैसे  कोई ये सब लिखने को मजबूर कर रहा है कुछ पुराने जख्म जो सबके सामने खोल रही हूँ )
जैसे ही दरवाजे पर दस्तक हुई वो  सामने खड़ा था  
सफ़ेद कुरता पायजामा पहने चेहरा पहचान गई हाँ तुम ही तो हो 
दो शख्स जो तुम्हें घर तक लाये वो भी जाने पहचाने लगे 
पल भर में मानो ख़ुशी का सैलाब आँखों से उमड़ पड़ा 
दौड़ कर सीने से लगा  लिया तुम्हें 
कहाँ चले गए थे  मेरे भाई तुम 
क्या  हाल हो गया है तुम्हारा कहाँ थे 
फिर तुमने कहा दीदी उन्होंने  मुझे बहुत सताया 
बहुत दर्द होता है आज भी तुमने अपनी छाती 
दिखाई उसमे बने दो सुराख ज्यों के त्यों 
देख पल भर में वो न्रशंसता का वो खेल 
आँखों के सामने घूम गया 
फिर तुमने कहा दीदी मुझे फिर तीव्र ज्वर हो गया था 
और मैं उस पार चला गया था  
तुम्हारी आवाज मानो कहीं दूर से रही थी 
ऐसा  महसूस हो रहा था जैसे 
दिसंबर माह की सर्दी में मैं 
मैं बर्फ की सिल्ली से लिपटी हुई हूँ 
ओर मैं बहुत काँप रही हूँ 
अचानक तुम दूर हो जाते हो 
और उस पार से तुम्हारी आवाज 
फिर आती है दीदी मैं फिर आऊंगा मिलने 
मेरी अचानक आँखे खुलती हैं 
धीरे धीरे नजर स्पष्ट होती है 
सर के ऊपर छत का पंखा हिल रहा है 
ध्यान से देखती हूँ सब कुछ स्थिर है 
गहन सन्नाटा नीरवता है चारो और 
रात के तीन बजे हैं ,फिर आँखे बंद नहीं होती 
दौड़ कर तुम्हारी रखी  हुई वस्तुओं का बोक्स 
खोलती हूँ तुम्हारी डायरी हाथ लगती है 
जिसमे तुम सबके एड्रस लिखा करते  थे 
बार बार ढूँढती हूँ 
तो सिर्फ तुम्हारा ही एड्रस नहीं मिलता 
हथेलियों से मुख ढांप लेती हूँ 
दिल दिलासा देता है चल उस पार 
कोई है जो फिर आवाज देगा !!
और मैं भारी  क़दमों से किचिन की ओर   
चल देती हूँ पानी पीने  के लिए 
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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

बोलते चित्र (कुण्डलिया छंद )

धरती अम्बर से कहे ,सुना प्रेम के गीत 
अम्बर धरती से कहे, दिवस गए वो बीत 
दिवस गए वो बीत ,मुझे कुछ दे दिखाई 
 कोलाहल के  बीच,तुझे देगा न सुनाई 
जन करनी के  दंड, अभागिन प्रकृति भरती   
किस विध मिलना होय ,तरसते अम्बर धरती


लेकर तिनका चौंच में ,चिड़िया तू  कित  जाय 
नीड महल का छोड़ केघर किस देश बसाय 
घर किस देश बसाय ,सभी  सुख साधन छोड़े
ऊँची चढ़ती  बेल ,  धरा पे वापस   मोड़े 
           देख बिगड़ते  बालमाथ  मेरा  है  ठनका                
  जाती  अपने  गाँव , चौंच में लेकर तिनका 

पानी है संजीवनी ,मत करना बरबाद 
बूँद बूँद है कीमती ,इतना रखना याद 
इतना रखना याद ,करते रहोगे दोहन  
नदियाँ जायँ सूखबचे कैसे  संसाधन 
नीर  पादुका रोय   ,देख तेरी मनमानी
 धरा गर्भ को भेद  , कहाँ से आये पानी 
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मंगलवार, 20 नवंबर 2012

मेरी डायरी के पन्ने


दिलों में मचलती हुई  तरंगिणी   की  जिन 
लहरों संग डूबते उबरते रहे
वो लहरें आज भी हमें देख मुस्कुराती हैं  
आज भी वो मखमली घास 
सर झुकाकर  हमारे वहां होने की गवाही देती है 
चश्मदीद हैं वो उन पलों की 
जब मेरी गोद में था तुम्हारा सिर
और अपने हाथों से तुम्हारा खेलते खेलते 
उस घास को मरोड़ना 
उसकी शिकायत पर 
अचानक मेरे हाथों से तुम्हारे हाथ को 
ढांप कर रोक देना  
उस  पवन  से मेरी लड़ाई 
जो हमारी नजरों के दरमियाँ 
आकर छेड़ रही थी तुम्हारी  अलकों को 
भिगो रही थी हमारी साँसों की गर्माहट को 
वो नन्हे परिंदे जो हमारे ऊपर से 
उड़ते हुए लौट रहे थे अपने घरों को 
जाते हुए अपने पंखों से 
शुभ विदा कहकर 
अगले दिन मिलने का वादा करते हुए
आज भी मिलने आते हैं 
चाँद जो निकला था बादलों को चीर कर 
तुम्हारी माथे की शिकन को देखकर 
छुप गया था दुबारा बादलों के आँचल में 
जुगनू को भी तुमने छुपा दिया था 
अपने दुपट्टे के कौने में 
आज भी शिकायत करता है 
कुछ् ये थे मेरी डायरी के 
शुरूआती पन्ने !!
बीच के पन्नों में लिखी थी 
व्यस्त जिंदगी कुछ जिम्मेदारियां 
हमारी दो जिंदगियों के साथ दो का और जुड़ना 
उन दो के साथ और दो दो का जुड़ना 
आँगन में किलकारियां 
इस तरह हम दो के साथ और हाथों का जुड़ना 
और एक मजबूत रिश्तों की जंजीर बनना 
एक रिश्तों के मोतियों की बेमिसाल माला का गुंथना 
हमारा भरा पूरा घोंसला जगमगा रहा था उन पन्नो पर 
फिर पन्ने दर पन्ने खुलते गए  चित्र बदलते गए 
घोंसला छोड़ कर वो चिड़ियाँ सब अलग अलग 
दिशा में उड़ चली 
अब डायरी के तीसरे अध्याय में 
हम प्रवेश कर गए 
फिर एक बार हम दोनों अकेले हैं 
बस अपनों की यादें और विशेष अवसरों पर 
अपनों का इन्तजार और जुड़ गया  है इसके पन्नों में  
आज इस डायरी के शुरूआती पन्नों ने 
मुझे अपने पास बुलाया और कहा 
प्रीत की रीत निभाहते हुए
तुम कितनी दूर निकल आये 
कभी लौट कर आओ उसी नदी के किनारे 
वो मखमली दूब  जिसको तुमने समर्पित होना  सिखाया
आज भी तुम्हारे इन्तजार में 
नत मस्तक है
वही लहरें जिनको तुमने पावन चुम्बन की रीत सिखाई 
तुम्हारे कदम चूमने के लिए आतुर हैं 
चले आओ धीरे धीरे एक दूजे को सहारा देते हुए 
जीवन के अंतिम अध्याय में जी लों उन पलों को
समेट  लो उन यादों को और
बना दो सुखान्त इस आख्याति को 
एक बार फिर 
इससे पहले कि सूरज डूब जाए
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