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शनिवार, 28 अगस्त 2010

It was downpour that night,birds in their nest were squeaking whole night.that tree was just behind my room,I could not sleep because of my sympathetic emotions for tiny helpless birds....those thoughts came up in this way....

आंधी और तेज बारिश के बाद
बादलों ने कहर बरपाया
दामिनी ने उपद्रव मचाया
टहनी चटकी पात पात
नभचर रोये सारी रात
दरख्त का कन्धा टूट गया
अपना घरोंदा छूट गया
माँ कैसे अब भरण बसर होगा ?
.....पुनः जतन करना होगा !
तेरी कोमल कम्पित काया
पंख मेरे अब तेरी छाया
इनमे छुपाकर रख लूं तुझको
निज तन की ऊष्मा देदू तुझको
माँ तेरा तन कैसे गरम होगा ?
.....पुनः जतन करना होगा !
माँ मैं तेरी कोख का जाया
मैं समझूं हर तेरी माया
दाना दुनका नहीं मांगूंगा मैं
बिन चुगे अब रह लूँगा मैं
तुझे करना न कोई अब श्रम होगा
.....मेरे नन्हे पुनः जतन करना होगा !
देखो माँ सूरज उग आया
आलोक से तेरा भाल गर्माया
मैं भी बाहर  जाऊँगा
तेरा हाथ बठाऊंगा
तेरा गम सब हरना होगा
माँ मुझको अब उड़ना होगा
......पुनः जतन करना होगा !!!!

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