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बुधवार, 30 जून 2010

इस प्यार को क्या नाम दें

No one can snatch or beg love.it is a mystery of your heart you have to unfold it.true love leave such impression on your heart ,that one can pass whole life in it's shadow.there is a truthness behind this poetry....feel it........


स्मृति के पार तक विस्तृत तुम्हारी याद लो फिर चली आई


बरसती हुई पलकों मैं डूबी वो शाम लो फिर चली आई


जड़वत आँखों में आज फिर नमी सी है


शून्य सम जीवन में फिर क्यूँ कमी सी है


फाड़ दिया है पन्ना आज का किसी ने कैलेंडर से


क्या फाड़ पायेगा जो लिखा मेरे मस्तिष्क पटल से


आज फिर वोही दिन है मेरे जीवन में आये तुम बहार लेकर


और आज ही के दिन चले गए उजाड़ देकर


ख़ुशी मनाऊँ या मातम सोचते ही सोचते ,पच्चीस बरस बीत गए


मेरा प्रभात बन कर तुम नित आती हो


जब मेरे सिरहाने रखी तस्वीर में खिलखिलाती हो


कोन कहता है मैं उदास रहता हूँ ,मैं भी हँसता हूँ


जब तुम सामने अलमारी में रखे फ्रेम में जड़े हुए


अपने कुरते के बटन और चूडिया बजाती हो


मैं प्यासा कहाँ हूँ ,मेरे अधरों की प्यास यूँही बुझ जाती है


जब मेरी नजर कोने में रखे हुए उस कप पर


जिसमे तुम चाय पिया करती थी ,बरबस ही चली जाती है


देखो तुम हँसना नहीं एक राज खोल रहा हूँ मैं ,


तुमने जो अपने हाथों से बुना था सबसे छुपा कर मैंने तकिए में रखा था


आज जून के महीने में वो स्वेटर पहन रहा हूँ मैं


लोग कहीं पागल न कहे सर्दी का बहाना बना रहा हूँ मैं


कुछ दिनों से बिस्टर पर पड़ा हूँ मैं


डॉक्टर कहते हैं कुछ दिन ही शेष बचे हैं


एक एक कर गिन रहा हूँ मैं


बस अब वो दिन आने वाला है ,पच्चीस बरस का इन्तजार ख़त्म होने वाला है


अब तुम भी मुस्कुरा दो तुम्हारी तस्वीर के सामने दीप जलाने का वक़्त होने वाला है !

रविवार, 27 जून 2010

Roses of my garden in rain

bheega bheega mausam

अनाथ

मैं वो बूँद नहीं बादल की .कमल जिसे आँचल में भर ले
मैं वो बूँद हूँ विकल सी जिसे देख नागफनी (काक्टुस)भी आँखे बंद कर ले
मैं वो पुष्प नहीं उपवन का जो किसी के कंठ का हार बने
मैं वो उपेक्षित कंटक हूँ किसी पुष्प का निरर्थक ,दुर्नाम!
मैं किसी  पिता का सूरज नहीं ,किसी माँ का चाँद नहीं
किसी शब्द कोष में मेरा कोई नाम नहीं !
ना किसी बांहों का घेरा
ऐसा एकाकी जीवन मेरा !
फिर भी मैं हूँ ,मेरे जीने का मकसद है
अपने लिए नहीं ओरों के लिए जिन्दा हूँ
मेरी भी आँखे रोती हैं उन मासूमो के लिए 
जिनको कलयुग के देत्यों ने अनाथ बना डाला
अब मैं उन अनालंबो का अक्लांत सहारा हूँ
अब न वो अनाथ हैं न मैं अनाथ हूँ !!

A dedicated gardner of my garden in cultivating moment.

गुरुवार, 24 जून 2010

तू काहे निकली बाहर डगरिया गीली थी

It's a  rainy season I am thinking to write some thing related to this season.I open my old diary and found a poetry which I had written quite long back I thik in 1995 i had written this.I had tried to write this in bhojpuri language.I m posting here it is...
तू काहे निकली बाहर डगरिया गीली थी
उमड़ घुमड़ मेह बरसे बिजुरिया भड़कीली थी!
तन भीगा पग फिसला
मटमैली भई चुनरिया जो पीली थी

चूड़ी चटकी फूटी मटकी
छिटक गई पैजनिया जो ढीली थी
खिल खिल हँसे ननदिया
भ्रकुटी मटकाए सास बड़ी नखरीली थी

तन सिमट गया सजन संग लिपट गया 
छुई मुई भई बहुरिया बड़ी शर्मीली थी 
आँचल ढलका घूंघट पलटा
बरस गई अँखियाँ जो कजरीली थी!!

रविवार, 20 जून 2010

father's day

To day is father's day.heart is surmounted by the thoughtes,remembrance of my late father.heavy heart allow me to write some thing today......dadicated to all fathers.
लक्ष्य भिन्न है दिशा भिन्न है
राह वही जो तूने दिखाई
विषय अलग है ,सार अलग है
सीख वही जो तूने सिखाई !
तन अपना है रूप अपना है
रक्त की लाली तेरी पाई!
मेरा कल तेरे दम से था 
तेरे कल की छाया मुझमे समाई !
मुझमे निहित सारे संस्कार ,
तेरी धरोहर मेरे तात
मेरे अस्तित्व के सूत्र धार 
मैं कृतार्थ ,मैं कृतार्थ !! 

शुक्रवार, 18 जून 2010

flowers begin to bloom in my garden

beautiful yellow flowers in my garden spreading it's fragrance in surrounding

मैं एक सदय नन्हा सा दीपक हूँ

 दिवाली दीपों का त्यौहार है ,दीपक का अपना ही एक महत्व है, अलग अलग अवसर पर अपना योगदान है मेरे नजरिये से दीपक के कितने रूप हैं ......
मैं एक सदय नन्हा सा दीपक हूँ 
मेरी व्यथा मेरे मोद-प्रमोद की कहानी

तुमको सुनाता हूँ आज अपनी जुबानी

मैं एक नन्हा सा दीपक हूँ !
 मैं निर्धन की कुटिया का दिया
,चाहत ममता के साए में पला
माँ की अंजलि और आँचल की छाँव में जला

मैं जरूरतों का दिया ,मैं निर्धनता का दिया !


मैं महलों व् ऊँची अट्टालिकाओं का दिया

इसके तिमिर को मैंने जो दिया है उजाला

उन्ही उजालो ने मेरी हस्ती को मिटा डाला

मैं उपेक्षित सा दिया ,मैं जर्जर सा दिया !


मैं आरती का दिया

चन्दन ,कर्पुर ,धूप से उज्जवल भाल

मन्त्र स्त्रोतों में ढला चहुँ ओर पुष्पमाल

मैं अर्चना का दिया ,मैं पुष्पांजलि का दिया !



मैं शमशान का दिया

मैं जिनके करकमलों में ढला.जिनके लिए हर पल जला

उनकी शव यात्रा में आया हूँ

इहि लोक तज उह लोक की राह दिखाने आया हूँ

मैं सिसकता दिया ,मैं श्रधांजलि का दिया !

मैं एक नन्हा सा दीपक हूँ !!



मैं नन्हा दीपक बन गया शहीदों की अमर ज्योति

या समझो ख़ाक का या समझ लो लाख का मोती !!

रविवार, 13 जून 2010

रिक्त नयन

Whenever I see any blind person my heart feels pity and  start ampathising.what is without eyes..black...black...black.....these thoughts made me feel to recite some thing...here it is.......
रिक्त नयन
तेरी लहरों में कलश डुबाया था हमने
नयनों में भर आये अश्क अधिक हैं
                       या सागर में मोती कम हैं !
तेरी बगिया से पुष्प चुनने चले थे हम
आँचल में भर आये शूल अधिक हैं
                      या बगिया में पुष्प कम हैं !
तेरे दर पे सजदे किये थे हमने
अंजलि में भर आये गम अधिक हैं
                      या जहाँ में खुशियाँ कम हैं !
या रब तुझसे कुछ उज्जाले मांगे थे हमने 
पर हमको मिले ये रिक्त (द्रष्टि विहीन )नयन हैं
                      या तेरे लोक में रंगत कम है !
क्या निद्रा क्या स्वप्न यहाँ में क्या जानूं
भोर नारंगी शाम श्यामवर्ण में क्या जानूं
                 ये  हमारे नसीब की परछाई है या खुद हम हैं!! 

my lovely garden.

rain drops over leaves looks cool.

शुक्रवार, 11 जून 2010

वो श्रधेय कृषक है! वो अद्वित्य मानव है!

Vo suraj ki agan se bhookh mitata hai
Whenever I serve my garden with full dedication ,it comes up as per my expectations.It blooms,it smiles.it spred it's fragrance every where.I become happy,seeing the result,reward of my effort.I irrigate plants in the morning because i can;t tolerate scorching sun,let it be my weakness.Then I think about those farmers,who work hard ,not bother about scorching heat or thunder,downpour.ect.these thoughts compell me to write some thing about them.....dedicating to farmers.



वो सूरज  की  अगन से भूक मिटाता  है
वो अनुविग्न चन्द्र की शीतलता से प्यास बुझाता है
रक्त नलिकाएं बदन में मैराथन करती हैं
वो पसीने की नदिया   बहाता है !
वो माट्टी से यारी रखता है
धरा की मांग बीजों से भरता है
उसके नयन शब्द भेदी बाण हैं
जिनसे मेघ विच्छेदन करता है !
वो पाताल से अमृत घट लाता है
माटी की प्यास बुझाता है ,
फसल उसकी संतान है
वो बंजर धरा को मातृत्व का सुख दिलवाता है !
वो रोटी का टुकड़ा जन जन के मुख तक पहुँचाता है
वो अद्वित्य मानव है ,वो कर्मवीर है !
वो श्रधेय कृषक है वो श्रधेय कृषक है !!

गुरुवार, 10 जून 2010

बाँहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये

बाँहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये



ना अब कुंठाओं के घेरे हैं ना मायुसिओं के साए


मैं पदचाप सुनु तेरी तू पदचाप सुने मेरी


अधर मगर चुपचाप रहें बोले धड़कन तेरी मेरी


ये पल कितना रमणीय है चल इसके आगोश में जाएँ


बाँहों में बाहें .......


देखो क्या मंजर है प्रिये नभ धरा का मस्तक चूम रहा


तिलस्मी हो गयी दिशाए नशे में तरण तरण झूम रहा


रजनी हौले से आ रही तारों भरा आँचल फेलाए


बाँहों में बाहें ......


अपनी बगिया के फूल क्यूँ कुम्हलाने लगे हैं


घनघोर संमोहन के बादल क्यूँ छाने लगे हैं


आ दोनों मिलकर आँखों से उनके लिए सावन बरसायें


बांहों में बाहें .......


उनकी नजरें कुछ पूछ रही है हमको तारों में खोज रही हैं


स्वप्न बनकर आ हम दोनों उनकी निद्रा में बस जाएँ


बाहों में बाहें .......


अब तो अपने साए भी लौट गए हैं


जीवन के बंधन खोल गए हैं


चल हाथ पकड़ मेरा प्रिये अब हम अपने पथ पर बढ़ जाएँ


मैं पदचाप सुनु तेरी तू पदचाप सुने मेरी


बाहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये !

my birthday wishes

Today on 10th june it is  my birth day.eventhough I forgot the day,my friend one of my ladies club,wished me with this lovely greeting,on behalf of all members of the club.heartedly I m very much thankful to them.smiling at this lovely gift I am starting my day with this poem.....Hum kitni door nikal aaye... 

मंगलवार, 1 जून 2010

अब तुम ठहर क्यूँ नहीं जाते

I have written this poem in 1995.it was published in yantriki,d.doon.


अब तुम ठहर क्यूँ नहीं जाते 
संदिघ्ता के घेरे में घिरे ,अपने अस्तित्व को खोजते


मंजिल की चाह में आगे बढ़ते ,अर्ध विक्षिप्त से तुम


खुद मंजिल बन क्यूँ नहीं जाते!!


ऊँचे नीचे कंटकों से भरे पथ पर चलने वाले 
,
रेत की तपती धूप पर अबोध शिशु की तरह


बाद हवास से दोड़ने वाले तुम


खुद सघन वृक्ष बन क्यूँ नहीं जाते !!


 रंगहीन जीवन में सुख सम्रधि  के रंग भरने में संलग्न



  लोलुपता की तुलिका चलाते हुए



  सप्त रंगों में डूबे हुए चित्रकार से तुम



         स्वयं इन्द्रधनुष बन क्यों नहीं जाते !



अंधेरों के बढ़ते हुए काले सायों से घबराते



नीरवता के सन्नाटे में अपनी ही पदचाप से



बढती हुई दिल की धडकनों को सुनते



रौशनी की एक किरण को तरसते भिक्षुक से तुम



एक उज्जवल सितारा बन क्यों नहीं जाते !



निरर्थक निर्वस्त्र जीवन को



सार्थकता के परिधान में लपेटते



वक्त के थपेडों से खुद को बचाते हुए



जलते शोलों से तप्त राहों पर



बच बच के निकलने वाले तुम



खुद ओंस की बूँद बन क्यों नहीं जाते.



अभिलाषाओं की छितरी हुई कलिओं को समेटते



स्वप्नों के हार बनाते



धूलि धूसरित कंटकों से भरे कदमो के



रिसते हुए  लहू को अनदेखा कर



भागते हुए अनथके जिहिर्शु पथिक तुम



तुम्हारी थकित परछाई तुम्हे पुकार रही है



जीवन के अंतिम सत्य को समझा  रही है



अब तुम ठहर क्यों नहीं जाते !!